बख्तियारपुर: नालंदा विश्वविद्यालय को जलाने वाले बख्तियार खिलजी के नाम से जुड़ा ये नगर ऐतिहासिक नालंदा ओर पाटलिपुत्र (पटना) के बीचों-बीच पड़ता है। बख्तियारपुर कोई राष्ट्रीय धरोहर नही है। इसकी मुख्य पहचान है इसका रेलवे स्टेशन, जो की एक जंक्शन है।
बिहार के मध्य क्षेत्र अर्थात मगध के लोगो को ये यातायात में थोड़ी सहूलियत प्रदान करता है। बख्तियारपुर बिहार को दिल्ली-बंगाल आदि से जोड़ने वाली रेलवे लाइन है इसलिए इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। इन सबके अतरिक्त अगर बख्तियारपुर अपने नाम के कारण भारत भूमि पर लगे एक कलंक का प्रतीक है।
नालंदा विश्वविद्यालय की विशालता
भारत की गौरव गाथा का जीता जागता उदाहरण था नालंदा विश्वविद्यालय। जिसका निर्माण 5 वीं शताब्दी में मगध सम्राट कुमारगुप्त ने करवाया था। कुमारगुप्त गुप्त वंश के प्रतापी शासक थे। नालंदा विश्वविद्यालय में देश-प्रदेश के 10,000 विद्यार्थी, 2,000 शिक्षकों के सानिध्य में रहते थे जो इस ज्ञान के प्रकाश पुंज को जीवंत बनाये रखते थे। इसका वैभव पूरी दुनिया तक फैलाते थे पर बख्तियार खिलजी के अहंकारी ओर मजहबी उन्माद में फंसे मन ने सब कुछ सुना कर दिया। नालंदा विश्विद्यालय को बख्तियार ने आगे के हवाले कर दिया था। यहाँ इतनी किताबें थी कि उसके पुस्तकालय से अगले 6 महीने तक धुआँ उठता रहा।
बख्तियार खिलजी से है बख्तियारपुर का नाता
बख्तियारपुर बख्तियार खिलजी नामक सनकी तुर्क राजा के नाम पे है।
जाहिलियत की अगर कभी मिसाल देनी हो तो आप इस राजा का नाम ले सकते है।
ये वही है जिसने दुनिया को ज्ञान के प्रकाश से अपनी ओर आकर्षित करने वाले नालंदा विश्वद्यालय को आग में झोंक उसे खंडर में तब्दील कर डाला था।
इसके पीछे का कारण बड़ा अटपटा है। आप इसके बारे में जानिए ओर इसकी जाहिलियत का ढिंढोरा पीटीये।
बख्तियार खिलजी की जाहिलियत का शिकार हुआ नालंदा विश्वविद्यालय
बख्तियार खिलजी एक बार काफी बीमार हुआ।
इस्लाम के कट्टर अनुयायी खिलजी ने अपना इलाज हकीमो से ही कराने का मन बनाया।
देश-विदेश के हकीमो से अपना इलाज कराया पर नतीजा सिफर रहा।
जब सभी हार गयें तो कई हाकिमों ने उसे नालंदा विश्वद्यालय के प्राचार्य राहुल श्रीभद्र जी से इलाज कराने की सलाह दी।
बख्तियार अपने मद में चूर एक हिंदुस्तानी सनातनी से अपना इलाज बिल्कुल नही कराना चाहता था।
दिन प्रति दिन तबियत को गिरता देख आखिर उसे अपने अहंकार को तिलांजलि देनी पड़ी और नालंदा विश्विद्यालय के प्राचार्य को अपने इलाज के लिए बुलावा भेजा।
यहां भी मजहब का अभिमान उसके मन से न उतरा ओर उसने राहुलश्रीभद्र के सामने शर्त रख दी कि वो कोई हिंदुस्तानी दवाओं का उपयोग न करें।
इस शर्त ने राहुलदेव जी को असमंजस में डाल दिया पर ज्ञान जहां होता है वहां रास्ते निकल ही आते हैं।
प्रचार्य राहुलश्रीभद्र की तरकीब
कुछ दिनों बाद राहुलश्रीभद्र एक कुरान ले कर बख्तियार खिलजी के पास पहुंचे।
कुरान उसे सुपुद्र करते हुए उसे इसे हर दिन पढ़ने को कहा।
ये बात सुन बख्तियार खिलजी ठिठक पड़ा और कहा कि कुरान तो मैं हर दिन पढ़ता हूँ और अगर इससे ठीक होना होता तो अब तक मैं ठीक हो चुका होता।
राहुलदेव के आग्रह करने पे उसने हामी भर दी, आखिर कुरान ही तो पढ़ना था।
बख्तियार उस कुरान का नियमित पाठन करने लगा और कुछ ही दिनों में धीरे-धीरे बिल्कुल स्वस्थ हो गया।
राहुलदेव जी जानते थे कि कट्टर मुसलमान बख्तियार उनकी औषधि को सामान्य रूप में बिल्कुल नही स्वीकार कर सकता था।
इसलिए उन्होंने बड़ी सूझ-बूझ से कुरान के हर पन्ने पे औषधि का बारीक लेप लगाया था।
बख्तियार हर पन्ना पलटते हुए अपनी उँगलियों को पहले जीभ पर लगाता था।
ऐसा करने से कुरान के पन्नों पर लगी औषधि वो अनजाने में खा ले रहा था।
ऐसा करने के कारण से बख्तियार स्वस्थ हो गया।
बख्तियार खिलजी की कुंठा
इसके बाद भी बख्तियार को चैन न आया। उसे इस बात की कुंठा थी की एक सनातनी ने उसे कैसे ठीक कर दिया जब बड़े बड़े हकीमों ने हार मान ली थी।
जब उसने इसका जवाब जानना चाहा तो राहुलश्रीभद्र जी ने उसे अपने नुख्से के बारे में बता दिया।
जाहिल तानाशाह को जब इस सच्चाई का पता चला तो वो इसे बर्दास्त न कर सका।
उसने हिंदुस्तान के सबसे बड़े ज्ञान केंद्र को तबाह करने की ठानी।
ताकि आगे से कोई हिंदुस्तानी वैध किसी हकीम से बेहतर इलाज न कर सके।
अपनी कुंठा में उसने नालंदा विश्विद्यालय को आग के हवाले कर दिया।
आज के मुसलमान जिनकी साक्षरता की बात की जाए तो मात्र 3% मुसलमानों का ग्रेजुएट होना इसकी गवाही देता है।
एक बड़ा तबका आज भी मदरसे में ताल्लिम लेता है।
बख्तियार खिलजी जैसे इनके पूर्वज़ो की देन है जिनके ये आजीवन भुक्तभोगी बने रहेंगे।