शिव के अंश आदि शंकराचार्य की कहानी

क्या आप जानतें हैं शंकराचार्य को भगवान शिव का अंश क्यों कहा जाता है? आइये आपको बताते हैं आदि शंकराचार्य की चमत्कारी कहानियां जिसके बाद आप भी उन्हें ईश्वर का अंश मानने लगेंगे।

कौन थे आदि शंकराचार्य 

केरल के छोटे से गाँव कालड़ी में एक गरीब ब्राह्मण दंपत्ति रहते थे। शिवगुरु और आर्याम्बा को कोई संतान नही थी जिसके लिए दोनो भगवान शंकर की आराधना करते थे। इनकी भक्ति से प्रसन्न हो कर भगवन शंकर ने आर्याम्बा को दर्शन दिया और उन्हें वर दिया कि उन्हें जल्द ही पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। आगे चल कर आर्याम्बा को शुभ अभिजीत नक्षत्र में एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम शंकर रखा गया, यही शंकर आगे चल कर आदि शंकराचार्य के नाम से जाने गयें।

शंकराचार्य का बचपन 

आदि शंकराचार्य के जन्म वर्ष को ले कर काफी मतभेद हैं। कई इतिहासकार उनके जन्म का वर्ष 509 ईसा पूर्व मानते हैं जबकि मुख्य इतिहासकारों ने उनके जन्म का वर्ष 788 ईसवी माना है। आदि शंकराचार्य बचपन से ही काफी प्रतिभाशाली थे। जब वो काफी छोटे थे तभी उनके पिता की मृत्यु हो गयी थी जिसके बाद उनकी माता जी ने ही उन्हें प्राथमिक शिक्षा दी। अपने पिता की मृत्यु के कारण शंकराचार्य के उपनयन संस्कार में देरी हुई परन्तु अपनी तीव्र बुद्धि के कारण गुरुकुल की शिक्षा उन्होंने कम ही समय में पूरी कर ली। शंकराचार्य जी ने मात्र 9 वर्ष की उम्र में ही वेदों का पूरा अध्ययन कर लिया था।

अपनी माता को संन्यास के लिए कैसे मनाया 

दोस्तों शंकराचार्य का झुकाव बचपन से ही सन्यास के प्रति था पर उनकी माता अपने एकलौते बच्चे को खुद से दूर नही जाने देना चाहतीं थी। परंतु एक घटना के बाद शंकराचार्य जी ने अपनी माँ को मना लिया। ये चमत्कारिक घटना भी पूर्णा नदी में घटी थी जब एक बार शंकराचार्य नदी में स्नान कर रहें थे तब एक मगरमछ ने उनके पैर पकड़ लिए। इसके बाद शंकराचार्य ने अपनी माँ को आवाज लगाया और कहा कि तुम अगर मुझे सन्यास धारण नही करने दोगी तो ये मगरमच्छ मुझे खा जाएगा। इससे शंकराचार्य की माता जी घबरा गईं और उन्होंने उन्हें संन्यास धारन के लिए हाँ कह दिया, उनके हाँ कहते ही मगरमछ ने शंकराचार्य को छोड़ दिया। सन्यास पर भेजने से पहले उनकी माता जी ने उनसे वचन लिया कि वो सन्यासी होते हुए भी उनका अंतिम संस्कार करने आएंगे जिसके लिए शंकराचार्य तैयार हो गयें।

गोविन्द भगवत्पाद का सानिध्य

शंकराचार्य ओंकारेश्वर पहुँचे और वहाँ वो सिद्ध संत गोविंद भगवत्पद के पास पहुँचे और पहले संवाद में ही गोविंदभगवतपद ने उन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और उन्हें अद्वैत वेदांत की शिक्षा दी। धीरे-धीरे गोविंदभगवत्पाद जी को भी समझ आ गया कि शंकराचार्य जी का जन्म बड़े कार्यों की पूर्ति के लिए हुआ है। शंकराचार्य जी ने अपनी इंद्रियों, मस्तिष्क और प्राकृतिक शक्तियों पर इतना नियंत्रण पा लिया था कि वो कई बार चमत्कार प्रतीत होते थे।

शंकराचार्य द्वारा किये गये चमत्कार

एक बार जब शंकराचार्य जी को उनकी माता जी के मृत्यु का पता चला तो वो तुरंत ही अपने गाँव पहुंच गए। सन्यासी होने के कारण उन्हें उनके माता जी के अंतिम संस्कार के लिए सबने मना कर दिया। शंकराचार्य जी ने अकेले ही पुष्पों और लकड़ियों से चिता तैयार की फिर उसपे जल छिड़क कर मंत्रों का उच्चारण किया और चिता खुद ही प्रज्वलित हो गयी। ऐसे ही एक बार उनके गुरु जब समाधि में लीन थे तब नर्मदा का जल प्रवाह उनके आश्रम की ओर आने लगा जिसे देख सभी शिष्य डर गए और कहा कि ऐसे में तो गुरु जी डूब जाएंगे पर फिर शंकराचार्य ने कहा की ऐसा नही होगा और अपना कमंडल वहीं रख दिया। ये जान कर हैरानी होगी कि नर्मदा का भयानक जल प्रवाह उस कमंडल में समाता चला गया।

मठों की स्थापना 

जब शंकराचार्य जी ने खुद को पूरी तरह से सिद्ध पाया तब वो भृमण करने निकल पड़ें और जगह जगह जा कर वाद-विवाद करने लगें। 16 वर्ष से ले कर अपनी मृत्यु तक उन्होंने अद्वैत ज्ञान का प्रसार किया। इन्ही भृमण के दौरान शंकराचार्य ने चारों दिशाओं में मठों की स्थापना की और कई रचनाएं भी की। इस दौरान आदि शंकराचार्य जहाँ जहाँ रुके उन्ही जगहों पर आज सनातन धर्म की पवित्र स्थली चारो अर्थात ज्योतिर्मठ, श्रृंगेरी शारदा पीठ, गोवर्द्धन मठ और शारदा मठ हैं जो चारों वेदों से जुडें हैं।

32 वर्ष की आयू में जब आदि शंकराचार्य को लगा कि मानव रूप में उनका कार्य पूर्ण हो चुका है तब उन्होंने 820 ईसवी में समाधि ले ली।