कौन थे भारत के सबसे बड़े गैर सरकारी संगठन RSS के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार?
केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म 1 अप्रैल 1889 को नागपुर में एक तेलगु ब्राह्मण, बलिराम पंत के घर हुआ। केशव पर बड़ी कम उम्र से ही उनके बड़े भाई महादेव हेडगेवार के विचारों का प्रभाव था।
हेडगेवार का बचपन
केशव जब 9 या 10 वर्ष के रहे होंगे तब उनके विद्यालय नील सिटी स्कूल में अंग्रेज स्कूल निरीक्षक आया। जिसे देख कर केशव ने वन्देमातरम का नारा लगाना शुरू कर दिया जो की अंग्रेजी हुकुमत के नियमों के खिलाफ था। इसे ले कर उनके प्रधानाचार्य उनसे काफी नाराज हो गयें और उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। तत्पश्चात उन्होंने राष्ट्रिय विद्यालय यवतमाल से शिक्षा प्राप्त की। केशव के बचपन का एक वाकया और है जब एक बार अंग्रेजी हुकुमत की महारानी के आगमन पर स्कूलों में मिठाइयाँ बांटी जा रही थी पर जैसे ही ये मिठाइयाँ केशव को दी गयी तो उन्होंने उसे वहीं फेंक दिया।
बंगाल में शिक्षा-दीक्षा और क्रांति
मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद सन 1910 में हेडगेवार को उनके अभिभावक स्वरूप कांग्रेस नेता बालाकृष्णा शिवराम मुंजे जो आगे चल कर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष भी बनें के द्वारा आगे की पढाई के लिए बंगाल भेजा गया। जहाँ कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में पढाई के दौरान हेडगेवार बंगाल के क्रांतिकारियों द्वारा गुप्त संस्थाओं के माध्यम से चलाए जा रहे क्रांतिकारी संगठन का हिस्सा बनें। इस संगठन का नाम था अनुशीलन समिति।
हेडगेवार जिन क्रांतिकारी नेताओं से प्रभावित थे उनमे तिलक, सावरकर, अरबिंदो घोष आदि शामिल थे। इन क्रांतिकारियों ने अपनी क्रन्तिकारी गतिविधियों को क्रियान्वित करने के लिए जिस विधि को चुना था उसमे “ सीक्रेट सोसाइटी “ के माध्यम से जन जागरण व अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र प्रहार किया जाता था। हेडगेवार अपने कुशल नेतृत्व क्षमता के कारण बंगाल प्रदेश के हिन्दू महासभा उपाध्यक्ष भी बनाएं गये। सन 1916 में हेडगेवार अपनी पढाई पूरी कर के नागपुर आते हैं और कांग्रेस से जुड़ कर क्रांतिकारी गतिविधियों का हिस्सा बने रहते हैं।
कांग्रेस में सक्रिय भागीदारी
1920 में जब महात्मा गाँधी की अध्यक्षता में कांग्रेस का नागपुर अधिवेशन होता है। इसमें हेडगेवार को संगठन के कार्यों का प्रभार सौंपा जाता है। जिसके लिए हेडगेवार भारत स्वयसेवक मंडल की इकाइयाँ बनाते हैं। इसी अधिवेशन में गाँधी के असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव को कांग्रेस द्वारा स्वीकारा जाता है। असहयोग आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ एक बड़ा हथियार साबित हो सकता था पर गाँधी द्वारा इस आंदोलन के दौरान कुछ ऐसे निर्णय लिए गये थे जिससे उस वक़्त के कई नेताओं में कांग्रेस व गाँधी के प्रति असंतोष जागृत हो गया।
देखा जाए तो 1920 वो वर्ष था जब बाल गंगाधर तिलक का निधन हुआ था पर तिलक के निधन के बाद सन 1921 में गाँधी ने जब खिलाफत आंदोलन को असहयोग आंदोलन से जोड़ा तो कांग्रेस से जुड़े तिलक के अनुयायियों का धडा काफी नाराज हो गया। इनका कहना था की चुकी खिलाफत आंदोलन कोई राष्ट्रवादी आंदोलन न हो कर मजहबी आंदोलन था जो की मुसलामनों द्वारा अंग्रेजो के खिलाफ इसलिए किया जा रहा था क्यूंकि तुर्की में अंग्रेजों ने खलीफा को उसके पद से हटा दिया था।
कांग्रेस का साथ क्यों छोड़ा?
खिलाफत आन्दोलन और असहयोग आन्दोलन दोनों अपने आप में बिल्कुल ही अलग प्रकार के आंदोलन थे ऐसे में हेडगेवार समेत अन्य कई राष्ट्रवादी नेताओं ने खुद को कांग्रेस से अलग करना शुरू कर दिया था। उनकी दूरदर्शिता थी की अगर आज मुसलामानों का तुष्टिकरण हुआ तो कल अलग मुस्लिम राष्ट्र की मुहीम को तेजी मिलेगी और मुसलमान भारत के लिए न लड़ कर हमेसा मुसलमानों की लड़ाई ही लड़ेगे जो आगे चल कर सच साबित हुआ।
1921 में ही मालावार में दंगे हुए और कई हिन्दू इस दंगे की भेंट चढ़ गये। 1923 में महाराष्ट्र में ही एक और घटना घटी जिसमे हिन्दुओं द्वारा प्रतिमा के विसर्जन के दौरान उसे मस्जिद के इलाके से ले जाने पर मुसलमान हिंसक हो गये थे। ये वही दौर था जब सावरकर ने हिंदुत्व की थ्योरी भी दे दी थी और हेडगेवार इस घटना के बाद पूर्ण रूप से कांग्रेस से अलग और सावरकर के हिंदुत्व के प्रति आकर्षित हो गयें।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना
अपने संगठन चलाने के पुराने अनुभवों के बल पर हेडगेवार ने अपने साथी अप्पा जी जोशी के साथ मिल कर 27 सितम्बर 1925 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नीव रखी। जो करीब डेढ़ दशक तक संगठन विस्तार के कार्यों में लगा रहा वहीं इस दौरान हेडगेवार और उनके साथी व्यक्तिगत रूप से राष्ट्रवादी आंदोलनों से जुड़े रहें। कहा जाता है की जब भगत सिंह और उनके साथियों ने अंग्रेजी अफसर सैंर्डस की ह्त्या की तब वो भाग कर नागपुर ही पहुंचे थे। जहाँ हेडगेवार ने ही उन्हें अपने साथ रखा था। इसके अतरिक्त कांग्रेस की राष्ट्रवादी गतिविधियों में डॉ हेडगेवार ने बिच-बिच में हिस्सा लिया जिसमे से सन 1930 में पूर्ण स्वराज की मांग के साथ अपने घरों पर राष्ट्रिय ध्वज लहराना हो या गाँधी द्वारा अग्रेजो के विरुद्ध दांडी यात्रा करना प्रमुख है , डॉ साहब ने इन सभी आंदोलनों को अपना पूर्ण सहयोग प्रदान किया।
उनके द्वारा लगाया गया राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ नामक बीज आज वटवृक्ष बन चुका है और देश की दशा एवं दिशा तय करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। डॉ साहब ने माँ भारती की ताउम्र सेवा करने के बाद 21 जून 1940 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया पर उनके विचार आज भी RSS के रूप में जीवंत है और अखण्ड भारत के सपने को पूर्ण करने में संलगन है।