छठ पूजा पर कभी न चढ़ाए ये प्रसाद। रूठ जाएंगी छठी माँ !

    उगते सूरज को तो हर कोई प्रणाम करता है , लेकिन डूबते सूरज को प्रणाम करते है बिहार के लोग। जी हां, वही बिहारी जिन्हें हम IAS,IPS, राजनीति और अब छठ पूजा के लिए जानने लगे है। लेकिन ऐसा क्यों है की बिहार के लोग चाहे मुम्बई में रहे या मौरसेस में , हां वही मॉरेसिस जहां इंग्लिश से ज्यादा भोजपुरी के चर्चे है। भले ही वो अपनी मिट्टी से दूर हो जाए लेकिन उनकी छठ पूजा उनसे कभी दूर नही होती। इस पूजा का महत्त्व इतना है की जो बिहार पुरे देश में जातिवाद के लिए बदनाम है , उसी बिहार की सबसे बड़ी छठ पूजा हरिजन समुदाय के जाति के बिना संपन्न नही हो सकती।

    छठ पूजा के पीछे है ये कथा !

    हिंदू मान्यता के अनुसार जब प्रभु श्री राम और माता सीता चौदह साल के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे तब रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए उन्होने ऋषि मुनियों के आदेश पर राज्य सूर्य यज्ञ करने का फैसला लिया । पूजा के लिए उन्होने मुदगल ऋषि को आमंत्रित किया। मुदगल ऋषि ने माता सीता पर गंगाजल चिढ़ककर उन्हें पवित्र किया और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्य देव की उपासना करने का आदेश दिया। इसीलिए माता सीता ने मुदगल ऋषि के आश्रम में रहकर 6 दिनों तक सूर्यदेव भगवान की पुजा की थी। सप्तमी को सूर्योदय के समय फिर से अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था।
    रामायण के बाद ऐसी ही एक कहानी महाभारत में भी सुनने को मिलती है। हिंदू मान्यता के मुताबिक़ महाभारत की एक कथा प्रचलित है। इसे कुछ लोग छठ पूजा की शुरुआत को लेकर भी देखते है। कथा के अनुसार इस पर्व को सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य की पूजा करके शुरु किया था। कहा जाता है कि कर्ण, भगवान सूर्य के परम भक्त थे, और वो रोज घंटो तक पानी में खड़े होकर उन्हें अर्घ देते थे। सूर्य की कृपा से ही वो महान योद्धा बने थे। इसीलिए आज भी छठ पूजा में
    अर्घ देने की यही परंपरा प्रचलित है। इसमें एक दिन डूबते हुए सूर्य को और एक दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ दिया जाता है।
    महाभारत काल में ही छठ पूजा की एक और कथा सुनने को मिलती है। इस कथा के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाठ हार गए थे, तब द्रोपदी ने भी छठ पूजा की थी , इस वृत से उनकी मनोकामना पूरी हुई थी और उनका सारा राजपाठ उन्हें वापस मिल गया था। लोक परंपरा के अनुसार सूर्य देव और छठी मैया का भाई बहन का रिश्ता है। इसीलिए छठ की पूजा मे सूर्य की पूजा का बहुत महत्त्व है।
    लेकिन ऐसा क्यों है कि चाहे बिहारी मुम्बई में रहे या मैरासेस में , चाहे वो अपनी मिट्टी से कितना भी दूर हो जाए , वो छठ पूजा को कभी नहीं छोड़ते। आपको बता दे कि बिहारियों का ये त्योहार सरहदों को भी पार कर चूका है। जब बात बिहार के लोगों की आस्था की होती है , तब वो देश या विदेश की मिट्टी के बारे में नही सोचते। सोचते है तो अपनी संस्कृति को जिंदा रखने के बारे में।

    विदेशों में भी प्रसिद्ध है छठ पूजा !

    कनाडा, लंदन और आस्ट्रेलिया में बीस से पच्चीस साली से रह रहे बिहारि न ही अपने देश को भूले है , न मिट्टी को और न ही अपने कल्चर को। वो आज भी वहा पे छठ पूजा जरुर करते है और ऐसी तस्वीरें आयदिन आपको मीडिया में देखने को मिल जाएंगी। बिहार के लोगों की भावना छठ पूजा से इस तरह जुड़ी हुईं हैं कि जब लॉकडाउन के समय लोग बाहर भी नहीं जा पा रहे थे, उस वक्त भी उन्होने अपने घर के बाहर ही तालाब बनाकर पूजा की थी।
    छठ पूजा में सूर्यदेव की उपासना की जाती है, चार दिन चलने वाले इस महापर्व में पहला दिन नहाय खाय,। दूसरा दिन खरना, तीसरे दिन डूबते सूर्य को अर्घ्य देना और चौथे यानी अंतिम दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता हैं। छठ पूजा में चढ़ाए जाने वाले प्रसाद का भी एक ख़ास महत्त्व होता है। इन प्रसाद के बिना ये पूजा अधूरी मानी जाती है। इस पूजा मे चढ़ने वाले प्रसाद में मौसमी फलों को रखा जाता है। और इसके साथ ठेकुआ । ठेकुआ जो है, वो गुड़, घी और आटे से बनता है। जो कि सर्दियों के मौसम में इम्यूनिटी बूस्टर की तरह काम करता है। इसके साथ ही प्रसाद में डाभ नींबू भी होता है । इन सबके अलावा छठ पूजा के प्रसाद में मूली, गन्ना, नारियल, चावल के लड्डू, केले , जैसी अन्य चीज़े चढ़ाई जाती हैं। वैसे तो हिंदुओ के सभी त्योहारों में पंडितों की आवश्यकता होती है लेकिन छठ पुजा एक मात्र ऐसी पूजा है जिसमे लोग खुदको नेचर से कनेक्ट करते है, किसी भी पंडित की मदद नहीं लेते। छठ पूजा से जुड़ा एक फैक्ट ये भी है कि इस पुजा को तब तक पूरा नहीं माना जाता जब तक डोम समुदाय के हाथ से बनी हुई बास की टोकरी में प्रसाद को ना चढ़ाया जाए।