नया साल भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। राजस्थान समेत कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इसके चलते भाजपा अगले एक-दो महीने में राज्य में नेतृत्व परिवर्तन कर सकती है। इसके संकेत मिलने लगे हैं।
राजस्थान समेत कई राज्यों के चुनाव 2023 में होने हैं। इस वजह से यह वर्ष राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण रहने वाला है। हर समय चुनावी मोड में रहने वाली पार्टी भाजपा भी साल की शुरुआत से ही चुनावी रणनीति और संगठन को चुनाव के लिहाज से मजबूत करने की कवायद में जुट चुकी है।
राजनीतिक जानकारों की माने तो भाजपा दिल्ली, हिमाचल, और पंजाब में हुई हार को लेकर चिंतित और सजग है। इस वजह से राजस्थान समेत आधा दर्जन राज्यों में बड़े बदलाव के संकेत मिल रहे हैं। राजस्थान में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष और संगठन महामंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर चेहरे बदल सकती है।
पिछले कुछ महीनों से यह चर्चा का विषय बना हुआ है कि भाजपा किसी भी समय संगठन में आवश्यक फेरबदल कर सकती है। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) करीब-करीब सहमत भी हैं कि बदलाव किए बिना सफलता की उम्मीद कम ही है। इसकी वजह से भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया और संगठन महामंत्री चंद्रशेखर की जगह नए चेहरों को लाया जा सकता है। 2018 के विधानसभा चुनावों से पहले चंद्रशेखर को उत्तरप्रदेश से राजस्थान भेजा गया था। जिम्मेदारी दी थी पार्टी की अंदरुनी गुटबाजी को शांत करने और पार्टी की एकजुटता को कायम रखने के लिए।
2018 में 29 सीटों के अन्तर से गई थी सत्ता
2018 में राजस्थान में कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव जीतकर सरकार बनाई थी। तब भाजपा के पास जादुई नंबर से 29 सीटें कम आई थी। टिकट वितरण को बेहतर करते तो शायद भाजपा अपनी सरकार को बचा सकती थी। संगठन मंत्री उस समय नए थे, लिहाजा उनके बजाय पार्टी के उस समय के अन्य कर्णधारों को अकर्मण्य साबित किया गया। इसके बाद भी संगठन मंत्री पार्टी को एकजुट रखने में नाकाम ही रहे हैं। इसका खामियाजा भाजपा को उपचुनावों में भुगतना पड़ा। केंद्र को फीडबैक देने वाले नेताओ ने भी केंद्रीय पदाधिकारियों को संगठन मंत्री और कार्यकर्ताओं के बीच बढ़ती दूरियों के विषय में निरंतर अवगत कराया है।
नेता-कार्यकर्ताओं से सामंजस्य नहीं बना पाए पूनिया
राजस्थान प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष सतीश पूनिया का भी कार्यकाल पूरा हो चुका हैं। इसे लेकर भी भाजपा में चर्चा जोरों पर है कि बदलाव हो सकता है। प्रदेश अध्यक्ष के रूप में कार्यरत सतीश पूनिया भी पार्टी के नेताओं को एकजुट करने में विफल रहे। इसका जीवंत उदहारण भाजपा की रैलियां हैं, जहां अपेक्षा से कम भीड़ ही दिखी है।